ना मस्जिद आजान देती ना मंदिर के घंटे बजते
ना मस्जिद आजान देती ना मंदिर के घंटे बजते
ना मस्जिद आजान देती ना मंदिर के घंटे बजते
ना अल्ला का शोर होता ना राम नाम भजते
ना हराम होती रातों की नींद अपनी
मुर्गा हमें जगाता सुबह के पांच बजते
ना दीवाली होती और ना पठाखे बजते
ना ईद की अलामत ना बकरे शहीद होते
तू भी इन्सान होता मैं भी इन्सान होता
काश कोई धर्म ना होता.
काश कोई मजहब ना होता.
ना अर्ध देते ना स्नान होता
ना मुर्दे बहाए जाते ना विसर्जन होता
जब भी प्यास लगती नदिओं का पानी पीते
पेड़ों की छाव होती नदिओं का गर्जन होता
ना भगवानों की लीला होती ना अवतारों
का
नाटक होता
ना देशों की सीमा होती ना दिलों का
फाटक
होता
तू भी इन्सान होता मैं भी इन्सान होता
काश कोई धर्म ना होता
काश कोई मजहब ना होता
कोई मस्जिद ना होती कोई मंदिर ना होता
कोई दलित ना होता कोई काफ़िर ना
होता
कोई बेबस ना होता कोई बेघर ना होता
किसी के दर्द से कोई बेखबर ना होता
ना ही गीता होती और ना कुरान होता
ना ही अल्ला होता ना भगवान होता
तुझको जो जख्म होता मेरा दिल तड़पता
ना मैं हिन्दू होता ना तू मुसलमान होता
तू भी इन्सान होता मैं भी इन्सान होता.......
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